Wednesday, May 6, 2020

सोच रही है आज ये घड़ी

सोच रही है आज ये घड़ी
क्यों मैं दीवार पर हूँ जड़ी
देखते हैं सब मोबाइल को
अब मेरी नहीं किसी को पड़ी
सोच रही है आज ये घड़ी

रोज़ मुझको घुमा कर लाते थे
मुझे देख कर कार्यक्रम बनाते थे
उपहार में भी मुझको दे जाते थे
अब धूल में सड़ रही पड़ी पड़ी
सोच रही है आज है घड़ी

बच्चों के सुख दुख की साथी थी
उनके कितने काम मैं आती थी
परीक्षा पेपर को भी जल्दी निपटाती थी
मोबाइल ने कर दी उसकी खाट खड़ी
सोच रही है आज ये घड़ी

गृहणियों को भी काम मैं आती थी
मुझे देख कर सब खुश हो जाती थी
मनपसंद नाटक मैं उन्हें याद दिलाती थी
अब हो गयी ऐसी हालत जैसे हो सड़ी
सोच रही है आज ये घड़ी

रवि गोयल की कलम से

शहीद

कर रहा था वो, ट्रैन में सफर
जा रहा था, कितने समय बाद घर
तिरंगे में, लिपटा हुआ था
बेजान था शरीर, पर वही थे तेवर

चारों तरफ चिंगारियां थी
चारों तरफ ही थी चीखें
देश के दुश्मन जरा समझें
कुछ तो अपने हश्र से सीखें

हर बच्चा माँ के चरणों में
अपनी जान लुटायेगा
धरती माँ के आंचल पर
कभी दाग ना लग पायेगा

देकर अपनी जान वो
माँ का ऋण चुकाएगा
अपने गिरते लहू से वो
विजय तिलक लगाएगा

रवि गोयल की कलम से

सोच रही है मिट्टी

सोच रही है मिट्टी आखिर
क्या है उसका काम
क्या है उसका दाम

कभी बनाते मूर्ति उससे
कभी बनाते घर और बाम
कभी रौंदते पैरों तले
कभी आती शमशान में काम
सोच रही है मिट्टी आखिर
क्या है उसका काम
क्या है उसका दाम

कभी वो मंदिर में पूजी जाती
कभी रास्ते पर उड़ती धूल समान
कभी उगाती फल और सब्जी
जिनके लगाते सब हैं दाम
सोच रही है मिट्टी आखिर
क्या है उसका काम
क्या है उसका दाम

कभी सोचती क्यों इंसान को जन्मा
देता नहीं जो मान सम्मान
एक दिन मुझ में ही मिल जाना उसको
होना है उसका काम तमाम
सोच रही है मिट्टी आखिर
क्या है उसका काम
क्या है उसका दाम

कभी रोकती बाढ़ की आपदा
कभी रोकती वो अकाल
भुकमरी को न फैलने देती
करती उसकी वो रोकथाम
सोच रही है मिट्टी आखिर
क्या है उसका काम
क्या है उसका दाम

रवि गोयल की कलम से

एक अलमारी ही तो हूँ मैं

एक अलमारी ही तो हूँ मैं

कभी सजाती थी साजो सामान
कभी बढ़ाती थी घर का मान
आती थी हर सदस्य को काम
अब हो गयी धूल मिट्टी मेरे नाम
एक अलमारी ही तो हूँ मैं

सबके बचपन की यादें मुझसे जुड़ी हैं
हर शख्श की जरूरतें मुझे हुई पूरी है
सबने पिरोई अपनी अपनी कड़ी है
पर अब लगता है पैदा हो गयी दूरी है
एक अलमारी ही तो हूँ मैं

फेंक दिया मुझको किसी कोने में
अब नहीं किसी को दिलचस्पी मेरे होने में
कपबोर्डस ने ले लिया मेरा स्थान
आती हूँ काम जानवरों के सोने में
एक अलमारी ही तो हूँ मैं

बड़े शौक से मुझको घर लाये थे
नया रंग भी मुझ पर पुतवाये थे
छोटे छोटे समान भी मुझ में समाये थे
बेच दिया मुझको मुझसे पैसे कमाये थे
एक अलमारी ही तो हूँ मैं

- गुफरान की कलम से

नादान इश्क़

नासमझ था मैं, बहुत नादान था
समाज के नियमों से अनजान था

सबको एक बराबर का दर्जा दिया
अपनेपन पर मुझे अभिमान था

हो गया चकनाचूर दिल ये मेरा
जो मुश्किलों में भी मेरा गुमान था

रूठ गया अब तो हर रिश्ता मुझसे
जो कल तक मेरे सर का मान था

सर माथे ले लिए सब आरोप मैंने
अपनों ने ही दिया मौत का फरमान था

कह भी ना सका मैं कुछ भी तब
छीन लिए लफ्ज़, किया बेज़ुबान था

चाह कर मौत ने नहीं अपनाया मुझे
शायद मेरा वक़्त भी बेईमान था

आ लौट चल वापस रवि उस जहां से
जहाँ हर कदम पर बिकता ईमान था

- रवि गोयल की कलम से