Wednesday, May 6, 2020

सोच रही है आज ये घड़ी

सोच रही है आज ये घड़ी
क्यों मैं दीवार पर हूँ जड़ी
देखते हैं सब मोबाइल को
अब मेरी नहीं किसी को पड़ी
सोच रही है आज ये घड़ी

रोज़ मुझको घुमा कर लाते थे
मुझे देख कर कार्यक्रम बनाते थे
उपहार में भी मुझको दे जाते थे
अब धूल में सड़ रही पड़ी पड़ी
सोच रही है आज है घड़ी

बच्चों के सुख दुख की साथी थी
उनके कितने काम मैं आती थी
परीक्षा पेपर को भी जल्दी निपटाती थी
मोबाइल ने कर दी उसकी खाट खड़ी
सोच रही है आज ये घड़ी

गृहणियों को भी काम मैं आती थी
मुझे देख कर सब खुश हो जाती थी
मनपसंद नाटक मैं उन्हें याद दिलाती थी
अब हो गयी ऐसी हालत जैसे हो सड़ी
सोच रही है आज ये घड़ी

रवि गोयल की कलम से

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